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बच्चों के लिए बेहतर देश बनाना

 एनाक्षी  गांगुली

 (यह लेख 22 March के इंडियन एक्स्प्रेस में अंग्रेजी में  छपी है । यह उसका अनुवाद है ।)

The English Version of this is available on https://www.readwhere.com/read/c/71985382

7 मार्च 2023 को मेरे पिता चल बसे। उनकी आयु लगभग 96 वर्ष थी। अपनी पीढ़ी के कई और लोगों की तरह, वह  भी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे। उन्हें याद था कि 15 अगस्त 1947 को काँग्रेस समिति के अनुमंडल कार्यालय सचिव के रूप में अलीपुरद्वार में उन्होंने कहा था, “हालांकि, बेशक हमें आज़ादी मिल गई है, यह केवल राजनीतिक आज़ादी है। हमें लम्बा सफर तय करना है। हम अभी आर्थिक रूप से आज़ाद नहीं हैं। अब हमें स्वंय अपने प्रयासों से वास्तविक आज़ादी पाना है”।

भारत के स्वतन्त्रता के 75 साल के बाद समय आ गया है कि हम जायज़ा लें कि मेरे पिता और उन जैसे दूसरे लोगों ने आज़ादी के जो सपने देखे थे, वे पूरे किस हद तक पूरे हुए। क्या भारत अपने सभी बाल नागरिकों के लिए समान रूप से चमक रहा है जो कुल आबादी का लगभग 40 प्रतिशत होते हैं?

इन 75 सालों में, बच्चों और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए बहुत से कानून, नीतियां, योजनाएं और मंसूबे बनाए गए हैं। यहां तक कि ग्यारहवीं पंच वर्षीय योजना में पहली बार बाल अधिकारों के लिए अलग से एक अध्याय भी था। राष्ट्रीय स्तर पर, और कई राज्यों में  भी,  बाल बजट (child budget) कोअपनाया गया है। स्कूल में लगभग हर बच्चा नामांकित है जिसमें अधिक लड़कियां भी शामिल हैं। ज्यादा से ज्यादा बच्चों को प्रतिरक्षित किया गया है, बच्चों के खिलाफ हिंसा की रिपोर्ट पहले से अधिक की जा रही है, यौन हिंसा के मामलों में चुप्पी और कलंक टूट रहा है और बाल विवाह की घटनाओं में कमी आई है।

लेकिन कुछ पुरानी चुनौतियां अब भी बाकी रह गई हैं,  अन्य में तेज़ी आई है और साथ  ही नई चुनौतियों का उभार हुआ है। सामाजिक मानदंडों, जाति, धर्म, लिंग -पहचान (gender identity), विकलांगता, या जातीयता की वजह से गैर बराबरी अब  भी कायम है। ग्रामीण और शहरी विभाजन अब भी जारी है। बहुत से बच्चे अनियोजित और अस्थायी बस्तियों में रहते है हालात जिसकी वजह से उनकी बेदखली का खतरा लगातार बना हुआ है। स्कूलों में नामांक की तो स्थिति बेहतर है,  लेकिन उनके बरकरार रहने की दर बहुत अच्छी नहीं है। जबरी प्रवासन, मानव तस्करी और बाल व्यापार, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और शोषण अब भी वास्तविकता हैं। धर्म और जातीवाद के आधार पर हिंसा में बढ़ौतरी हुई है। भारत की बाल कुपोषण दर अब भी दुनिया में सबसे खराब दरों में से एक है और सबसे अधिक संख्या वाले बाल श्रमिकों का वतन है। भोजन के उत्पादन में बढ़ौतरी के बावजूद कई बच्चे भूखे रहते हैं। शिशु मृत्यु दर में कमी आई है लेकिन सेवाओं के बढ़ते निजीकरण की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच अवहनीय है।

बच्चे और युवा उसी  पारिस्थितिकि तंत्र (ecosystem) का भाग है जो हम सब व्यस्क उन्हें प्रदान करते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि बच्चे आज आक्रामक, असहिष्णु और पक्षपातपूर्ण हैं – ऐसा उन्हीं वजहों से है जो वे अपने आसपास देखते हैं और मेहसूस करते हैं।

इंटरनेट आधारित संचार और सोशल मीडिया असंख्य संभावनाएं पेश करती है, लेकिन यहां भी शोषण के अज्ञात रूप पैदा हो गए हैं। युवा अपने आपको नौकरी की सुरक्षा और कल्याण में कटौती वाली नई बाज़ार अर्थव्यवस्था में खोया हुआ पाते हैं। वे मानसिक स्वास्थ मुद्दों, व्यसनकारी व्यवहार और मादक द्रव्यों के सेवन से भी जूझ रहे हैं।

कोविड–19 लॉकडाउन से उपजी कई चुनौतियों ने वर्षों की प्राप्तियों को उलट–पुलट दिया है। इसी लिए जब 2023-24 के बजट की घोषणा की गई थी तो हम केवल चिंतित ही नहीं बल्कि स्तब्ध थे। बाल अधिकार केंद्र हक्क सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स द्वारा किया गया एक विश्लेषण दर्शाता है कि कोविड के प्रभाव के बावजूद,  इस साल बच्चों के लिए बजट आवंटन विगत 12 वर्षों में सबसे कम है।  यह औसत 5 प्रतिशत से घट कर 2.30 प्रतिशत पहुंच गया है। प्रमुख मंत्रालयों के बजट आवंटन को भी कम कर दिया गया है – महिला एंव बाल विकास मंत्रालय के आवंटन को 2.54 प्रतिशत कम कर दिया गया है, बाल श्रम मामलों से निपटने वाले श्रम एंव रोज़गार मंत्रालय का आवंटन 33 प्रतिशत घटाया गया है और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में यह गिरावट 37.81 प्रतिशत है।

लिंग, जाति, धर्म, जातीयता, क्षेत्र या विकलांगता द्वारा बंटे होने के बावजूद यह महत्वपूर्ण है कि कोई बच्चा सेवाओं और  सुविधाओं सेवंचित ना रहे। इसके लिए ठोस आंकड़ा संग्रह और निगरानी तंत्र की ज़रूरत है जो छूट जाने वालों की खोज कर सके। सरकार को अवश्य याद रखना चाहिए कि यह सतत विकास लक्ष्यों (SDG) के बुनियादी सिद्धांत “किसी को पीछे न छोड़ने” (LNOB) के लिए प्रतिबद्ध है। इसका मतलब है समावेश, समानता और गैर–भेदभाव की गारंटी देना। ज्यादा कड़े कानून प्रतिशोध के लिए जनता की मांग को संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन जटिल सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकते हैं। हमें सक्षम बनाने पर केंद्रित 360 डिग्री दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो बच्चों को सुरक्षित और सशक्त करने वाला हो।

हमारे बच्चों और युवाओं के सपने और आकांक्षाएं बदल रही हैं। हमें उनको सुनने और डरे बिना आज़ादी से बोलने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब हम वयस्क भी रचनात्मक आलोचना को महत्व दें। हमें ऐसे वातावरण की आवश्यकता है जो हमारी कामना के लोकतंत्र को आगे ले जाने के लिए स्वतंत्र सोच और भयमुक्त पीढ़ी का निर्माण करे। भारत की आज़ादी के 75वें वर्ष में बच्चों के लिए यही मेरे सपने हैं।

लेखिका हक्क सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स – की सह–संस्थापक और पूर्व निदेशक हैं: विचार व्यक्तिगत हैं। यह लेख 15 अगस्त से उन महिलाओं द्वारा आरंभ किए गए लेखों की एक सतत श्रंखला का हिस्सा है जिन्होंने सभी क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी है।

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